सूरज ने खोली निज आँखें,
और प्रकृति ने ली अंगड़ाई।
अनुभूति हुई कुछ ऐसे जैसे,
नई नवेली दुल्हन आई।।
हो गई प्रफुल्लित धरा आज,
है सभी पुष्प खिले खिले।
मानव भी है स्नेहसिक्त,
मुस्कुरा रहे सब मिलके गले।
फाग माह की आभा न्यारी,
शोभा भी है कान्तिमयी।
दृष्टि नहीं हट पाती किंचित,
देख धरा को शांतिमयी।।
नवपल्लव नव कोपल फूटीं,
खिल गई वृक्ष की हर डाली।
उड़ती पतंग सी नव मंडलों में,
आई ऋतु देखो मतवाली।।
धारण कर पीली-सी साड़ी,
खेतों में सरसों इतराई।
शृंगार देख धरती माता भी,
मन ही मन कितनी हर्षाई।।
सोलह शृंगार से सजी क्यारियाँ,
भौरें मतवाले हो रस पीते।
डाल डाल पर चहके चिड़ियाँ,
वन उपवन आनंद को जीते।।
मादक सुगंध ले पवन बह रहा,
कोकिला छेड़ती मधुर तान।
अंतहीन सुख सर्वदा रहे यह,
प्रेम पूर्ण ऋतु राज समान।।
कवयित्री:
सुमंगला सुमन।
मुम्बई, महाराष्ट्र।
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