हिन्दी कविता | अच्छा होता कविता | दूर बहुत है | लड़कर हारा | सम्हल चला तो | समय पर कविता | विजय कल्याणी तिवारी
अच्छा होता
मैं पहचान गया होता।
जितना भी था
वह अभिमान गया होता।।
जितना भी था
वह अभिमान गया होता।।
हर विषाद के
पीछे तुम थे सत्य यही।
हर कलंक पर
कहते आधिपत्य सही।।
पीछे तुम थे सत्य यही।
हर कलंक पर
कहते आधिपत्य सही।।
तुम होते तो
सब व्यवधान नया होता।
जितना भी था
वह अभिमान नया होता।।
क्रूर कुटिल तम
रहा आचरण सदा सदा।
उम्मीदों से
बंधा रहा मैं यदा कदा।।
मिलने वाला
हर अनुदान नया होता।
जितना भी था
वह अभिमान नया होता।।
उनसे मांगा
कुछ सपनों को पंख लगे।
तन सोए पर
अंतर मन के भाव जगे।।
जीवन यापन
का सामान नया होता।
जितना भी था
वह अभिमान नया होता।।
कवि:
विजय कल्याणी तिवारी
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर, छत्तीसगढ़।
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(सम्हल चला तो)
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निज पांवों से
सम्हल चला तो अच्छा हो।
रख पाया जो
सोच भला तो अच्छा हो।।
दुनिया - दारी
समझा तो सुख पाएगा।
जहां अंधेरा
वहां दीप जल जाएगा।।
अब अंतर मन
भाव पला तो अच्छा हो।
निज पांवों से
सम्हल चला तो अच्छा हो।।
अहम-वहम से
मन की दूरी रख लेना।
खट्टे-मीठे
परिणामों को चख लेना।।
गगन चंद्रमा
पूर्ण कला तो अच्छा हो।
निज पांवों से
सम्हल चला तो अच्छा हो।।
रहे निरापद
बचे सतत् आघातों से।
और जगत को
जीते अपनी बातों से।।
पुष्पित तरुवर
खूब फला तो अच्छा हो।
निज पांवों से
सम्हल चला तो अच्छा हो।।
कवि:
विजय कल्याणी तिवारी
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर, छत्तीसगढ़।
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(लड़कर हारा)
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वह बेचारा अच्छा था।
लड़कर हारा अच्छा था।।
मूरख बहके-बहके से।
झूठा नारा अच्छा था।।
धार उग्र थी सरयू की।
पार उतारा अच्छा था।।
मीठे से मन ऊब रहा।
मिलता खारा अच्छा था।।
उनसे मिल भ्रम टूट गया।
मीत हमारा अच्छा था।।
आजादी में आंख बहे।
तब तो कारा अच्छा था।।
कवि:
विजय कल्याणी तिवारी
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर, छत्तीसगढ़।
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(दूर बहुत है)
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दूर बहुत है
फिर भी चलकर जाना है।
देख पलट कर
पथ जाना - पहचाना है।।
छोड़ दिया है
उनको जिनके बीच रहा।
फिर भी हंसता
यार बड़ा ही नीच रहा।।
याद रहे यह
बीच उन्हीं के आना है।
देख पलट कर
पथ जाना पहचाना है।।
मिट्टी - पानी
से मन जोड़ नहीं पाया।
जिससे निर्मित
सत्य मीत तेरी काया।।
चूक गया तो
नयनन नीर बहाना है।
देख पलट कर
पथ जाना पहचाना है।।
रिश्ते-नाते
जीवन के अवलंबन हैं।
जो सुख देते
वे इक अनुपम बंधन हैं।।
आगे बढ़कर
तुमको भार उठाना है।
देख पलट कर
पथ जाना पहचाना है।।
मोड़ अधिक हैं
सम्हल-सम्हल कर चलना।
रात अमावस
पथ दीपक बन कर जलना।।
सूरज निकला
उनसे नयन मिलाना है।
देख पलट कर
पथ जाना पहचाना है।।
कवि:
विजय कल्याणी तिवारी
विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर, छत्तीसगढ़।
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