मजहबी | धार्मिक कट्टरता | अराजकता | साहित्यिक हरियाणा
अब तो क़लम भी थकी-थकी सी लगती है,
जारी है जंग सियासत के ग़लियारों में आज,
आपसी सूझबूझ की कुछ कमी सी लगती है।
ज़हर घुला है इस क़दर अब हवाओं में यूँ ‘राज’,
साथ-साथ चलने में शर्मिंदगी सी लगती है।
दौर उठा पटक घृणा का जारी है यूँ अनवरत,
वतन की ज़मीं भी पड़ोस की सरजमीं सी लगती है।
किसको करें बयाँ दर्द-ए-दिल की दास्ताँ,
अपने ही दिए की लौ बुझी-बुझी सी लगती है।
कवि की कलम:
राजपाल यादव ‘राज’
पता: गुरुग्राम, हरियाणा
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